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श्रीचंद्रावली

बरस रहा है। जैसा समा बँधा है वैसी ही झूलनेवाली हैं। झूलने में रंग-रंग की साड़ी की अर्द्ध-चंद्राकार रेखा इंद्रधनुष की छबि दिखाती है। कोई सुख से बैठी झूले की ठंढी-ठंढी हवा खा रही है, कोई गाँती बाँधे लॉग कसे पेंग मारती है, कोई गाती है, कोई डरकर दूसरी के गले में लपट जाती है, कोई उतरने को अनेक सौगंद देती है, पर दूसरी उसको चिढ़ाने को झूला और भी झोके से झुला देती है।

माधवी---हिंडोरा ही नहीं भूलता। हृदय में प्रीतम को झुलाने के मनोरथ और नैनो में पिया की मूर्ति भी झूल रही है। सखी, आज सॉवला ही की मेंहदी और चूनरी पर तो रंग है। देख बिजुली की चमक में उसकी मुख-छबि कैसी सुंदर चमक उठती है और वैसे पवन भी बार-बार घूँघट उलट देता है। देख---

हूलति हिये में प्रानप्यारे के बिरह-सूल
फूलति उमंगभरी झूलति हिंडोरे पै।
गावति रिझावति हँसावति सबन 'हरि-
चंद' चाव चौगुनो बढ़ाइ घन घोरे पै॥
वारि वारि डारौं प्रान हँसनि मुरनि बत-
रान मुँह पान कजरारे दृग डोरे पै।