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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३४४

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भारतेंदु-नाटकावली

ऊनरी घटा मैं देखि दूनरी लगी है आहा
कैसी आजु चूनरी फबी है मुख गोरे पै॥

चंद्रा०---सखियो, देखो कैसो अंधेर और गजब है कि या रुत मैं सब अपनो मनोरथ पूरो करै और मेरी यह दुरगत होय! भलो काहुवै तो दया आवती। ( आँखों में आँसू भर लेती है )

माधवी---सखी, तू क्यों उदास होय है। हम सब कहा करें, हम तो आज्ञाकारिणी दासी ठहरीं, हमारो का अखत्यार है तऊ हममैं सों तो कोऊ कछू तोहि नायँ कहै।

का०मं०---भलो सखी, हम याहि कहा कहैंगी! याहू तो हमारी छोटी स्वामिनी ठहरी।

विला०---हाँ सखी, हमारी तो दोऊ स्वामिनी हैं। सखी, बात यह है कै खराबी तो हम लोगन की है, ये दोऊ फेर एक की एक होयँगी। लाठी मारवे सों पानी थोरों हूँ जुदा होयगो, पर अभी जो सुन पावैं कि ढिमकी सखी ने चंद्रावलियै अकेलि छोड़ि दीनी तो फेर देखो तमासा।

माधवी---हम्बै बीर। और फेर कामहू तौ हमीं सब बिगारैं। अब देखि कौन नै स्वामिनी सों चुगली खाई। हमारेई