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श्रीचंद्रावली

मनु दूग धारि अनेक जमुन निरखत ब्रज सोभा।
कै उमगे पिय-प्रिया-प्रेम के अनगिन गोभा॥
कै करिकै कर बहु पीय को टेरत निज ढिग साहई।
कै पूजन को उपचार लै चलति मिलन मन मोहई॥

कै पियपद उपमान जानि एहि निज उर धारत।
मुख करि बहु भृंगन मिस अस्तुति उच्चारत॥
कै ब्रज-तियगन-बदन-कमल की झलकत झाई।
कै ब्रज हरिपद-परस हेत कमला बहु आईं॥
कै सात्विक अरु अनुराग दोउ ब्रजमंडल बगरे फिरत॥
कै जानि लच्छमी-भौन एहि करि सतधा निज जल धरत॥

तिन पै जेहि छिन चंद-जोति राका निसि आवति।
जल मैं मिलिकै नभ अवनी लौं तान तनावति॥
होत मुकुरमय सबै तबै उज्जल इक ओभा।
तन मन नैन जुड़ात देखि सुंदर सो सोभा॥
सो को कबि जो छबि कहि सकै ता छन जमुना नीर की।
मिलि अवनि और अंबर रहत छबि इकसी नभ तीर की॥

परत चंद्र-प्रतिबिंब कहूँ जल मधि चमकायो।
लोल लहर लहि नचत कबहुँ साई मन भायो॥
मनु हरि-दरसन हेत चंद जल बसत सुहायो।
कै तरंग कर मुकुर लिए सोभित छबि छायो॥