ललिता---हैं अब तक चंद्रावली नहीं आई। साँझ हो गई, न घर में कोई सखी है न दासी, भला कोई चोर-चकार चला आवै तो क्या हो। ( खिड़की की ओर देखकर ) अहा! जमुनाजी की कैसी शोभा हो रही है। जैसा वर्षा का बीतना और शरद का आरंभ होना वैसा ही वृंदावन के फूलों की सुगंधि से मिले हुए पवन की झकोर से जमुनाजी का लहराना कैसा सुंदर और सुहावना है कि चित्त को मोहे लेता है। आहा! जमुनाजी की शोभा तो कुछ कही ही नहीं जाती। इस समय चंद्रावली होती तो यह शोभा उसे दिखाती। वा वह देख ही के क्या करती, उलटा उसका विरह और बढता। ( यमुनाजी की ओर देखकर ) निस्संदेह इस समय बड़ी ही शोभा है।
तरनि-तनूजा-तट तमाल तरुवर बहु छाए।
झुके कूल सों जल-परसन-हित मनहुँ सुहाए॥
कि मुकुर मैं लखत उझकि सब निज-निज सोभा।
कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा॥
मनु आतप बारन तीर कों सिमिटि सबै छाए रहत।
कै हरि-सेवा-हित नै रहे निरखि नैन मन सुख लहत॥
कहूँ तीर पर कमल अमल सोभित बहु भॉतिन।
कहुँ सैवालन मध्य कुमुदिनी लगि रहि पाँतिन॥