पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३५९

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श्रीचंद्रावली

कहूँ बालुका बिमल सकल कोमल बहु छाई।
उज्जल झलकत रजत सिढी मनु सरस सुहाई॥
पिय के आगम हेत पॉवड़े मनहुँ बिछाए।
रत्नरासि करि चूर कूल मैं मनु बगराए॥
मनु मुक्त मॉग सोभित भरी श्यामनीर चिकुरन परसि।
सतगुन छायो कै तीर मैं ब्रज निवास लखि हिय हरसि॥

( चंद्रावली अचानक आती है )

चंद्रा०---वाह वाहरी बैहना अाजु तो बड़ी कबिता करी। कबिताई की मोट की मोट खोलि दीनी। मैं सब छिपेंछिपें सुनती थी।

( दबे पाँव से जोगिन आकर एक कोने में खड़ी हो जाती है )

ललिता०---भलो-भलो बीर, तोहि कबिता सुनिबे की सुधि तौ आई, हमारे इतनोई बहुत है।

चंद्रा०---( सुनते ही स्मरणपूर्वक लंबी सॉस लेकर )

सखी री क्यौं सुधि माहि दिवाई।
हौं अपने गृह-कारज भूली भूलि रही बिलमाई॥
फेर वहै मन भयो जात अब मरिहौं जिय अकुलाई।
हौं तबही लौं जगत-काज की जब लौं रहौं भुलाई॥

ललिता---चल जान दे, दूसरी बात कर।

जोगिन---( आप ही आप ) निस्संदेह इसका प्रेम पक्का है,