देखो मेरी सुधि आते ही इसके कपोलों पर कैसी एक साथ जरदी दौड़ गई। नेत्रों में आँसुओं का प्रवाह उमग आया। मुँह सूखकर छोटा सा हो गया। हाय! एक ही पल में यह तो कुछ की कुछ हो गई। अरे इसकी तो यही गति है---
छरी सी छकी सी जड़ भई सी जकी सी घर
हारी सी बिकी सी सो तो सबही घरी रहै।
बोले तें न बोलै दूग खोलै नाहिं डोलै बैठी
एकटक देखै सो खिलौना सी धरी रहे॥
'हरीचंद' औरौ घबरात समुझाएँ हाय
हिचकि-हिचकि रोवै जीवति मरी रहै।
याद आएँ सखिन रोवावै दुख कहि-कहि
तौ लौं सुख पावै जौ लौं मुरछि परी रहै॥
अब तो मुझसे रहा नहीं जाता। इससे मिलने को अब तो सभी अंग व्याकुल हो रहे हैं।
चंद्रा०---( ललिता की बात सुनी-अनसुनी करके बाएँ अंग का फरकना देखकर आप ही आप ) अरे यह असमय में अच्छा सगुन क्यों होता है। ( कुछ ठहरकर ) हाय आशा भी क्या ही बुरी वस्तु है और प्रेम भी मनुष्य को कैसा अंधा कर देता है। भला वह कहाँ और मैं कहाँ---