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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३६४

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भारतेंदु-नाटकावली

यह है सुहाग का अचल हमारे बाना।
असगुन की मूरति खाक न कभी चढ़ाना॥
सिर सेंदुर देकर चोटी गूँथ बनाना।
कर चूरी मुख में रंग तमोल जमाना॥
पीना प्याला भर रखना वही खुमारी।
साँची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी॥
है पंथ हमारा नैनो के मत जाना।
कुल लोक वेद सब औ परलोक मिटाना॥
शिवजी से जोगी को भी जोग सिखाना।
'हरिचंद' एक प्यारे से नेह बढ़ाना॥
ऐसे बियोग पर लाख जोग बलिहारी।
साँची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी॥

चंद्रा०---( आप ही आप ) हाय-हाय इसका गाना कैसा जी को बेधे डालता है। इसके शब्द का जी पर एक ऐसा विचित्र अधिकार होता है कि वर्णन के बाहर है। या मेरा जी ही चोटल हो रहा है। हाय-हाय! ठीक प्रानप्यारे की सी इसकी आवाज है। ( बलपूर्वक आँसुओ को रोककर और जी बहलाकर ) कुछ इससे और गवाऊँ। ( प्रगट ) जोगिन जी कष्ट न हो तो कुछ और गाओ। ( कहकर कभी चाव से उसको ओर देखती है और कभी नीचा सिर करके कुछ सोचने लगती है )