पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३६३

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श्रीचंद्रावली

चंद्रा०---( आप ही आप ) हाय! यह भी कोई बड़ी भारी बियोगिन है तभी इसकी ओर मेरा मन आपसे आप खिंचा जाता है।

ललिता---तौ संसार को जोग तो और ही रकम को है और आप को तो पंथ ही दूसरो है। तो भला हम यह पूछैं कि का संसार के और जोगी लोग वृथा जोग साधै हैं?

जोगिन---यामैं का संदेह है, सुनो। ( सारंगी छेड़कर गाती है )

पचि मरत वृथा सब लोग जोग सिर धारी।
साँची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी॥
बिरहागिन धूनी चारो ओर लगाई।
बंसी धुनि की मुद्रा कानो पहिराई॥
अँसुअन की सेली गल में लगत सुहाई।
तन धूर जमी साइ अंग भभूत रमाई॥
लट उरझि रहीं सोइ लटकाई लट कारी।
सॉची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी॥
गुरु बिरह दियो उपदेस सुनो ब्रजबाला।
पिय बिछुरन दुख को बिछानो तुम मृगछाला॥
मन के मनके की जपो पिया की माला।
बिरहिन की तो हैं सभी निराली चाला॥
पीतम से लगि लौ अचल समाधि न टारी।
सॉची जोगिन पिय बिना बियोगिन नारी॥