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श्रीचंद्रावली

अलख गति जुगल पिया-प्यारी की।
को लखि सकै लखत नहिं आवै तेरी गिरिधारी की॥
बलि बलि बिछुरनि मिलनि हँसनि रूठनि नित हीं यारी की।
त्रिभुवन की सब रति गति मति छबि या पर बलिहारी की॥

चंद्रा०---( आप ही आप ) हाय! यहाँ आज न जाने क्या हो रहा है, मैं कुछ सपना तो नहीं देखती। मुझे तो आज कुछ सामान ही दूसरे दिखाई पड़ते हैं। मेरे तो कुछ समझ ही नहीं पड़ता कि मैं क्या देख-सुन रही हूँ। क्या मैंने कुछ नशा तो नहीं पिया है! अरे यह जोगिन कहीं जादूगर तो नहीं है। ( घबड़ानी सी होकर इधर उधर देखती है )

( इसकी दशा देखकर ललिता सकपकाती और जोगिन हँसती है )

ललिता---क्यों, आप हँसती क्यों हैं?

जोगिन---नहीं, योही मैं इसको गीत सुनाया चाहती हूँ पर जो यह फिर गाने का करार करे।

चंद्रा०---( घबड़ाकर ) हाँ, मैं अवश्य गाऊँगी, आप गाइए। ( फिर ध्यानावस्थित सी हो जाती है )

( जोगिन सारंगी बजाकर गाती है )

( संकरा )

नू केहि चितवति चकित मृगी सी?
केहि ढूँढ़त तेरो कहर खोयो क्यौं अकुलाति लखाति ठगी सी॥