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भारतेंदु-नाटकावली

तन सुधि करु उधरत री आँचर कौन ख्याल तू रहति खगी सी।
उतरु न देत जकी सी बैठी मद पीया कै रैन जगी सी॥
चौंकि चौंकि चितवति चारहु दिस सपने पिय देखति उमगी सी।
भूलि बैखरी मृगछौनी ज्यौं निज दल तजि कहुँ दूर भगी सी॥
करति न लाज हाट घर बर की कुलमरजादा जाति डगी सी।
'हरीचंद' ऐसिहि उरझी तौ क्यौं नहिं डोलत संग लगी सी॥
तू केहि चितवति चकित मृगीसी?

चंद्रा०---( उन्माद से ) डोलूँगी-डोलूँगी संग लगी। ( स्मरण करके लजाकर आप ही आप ) हाय-हाय! मुझे क्या हो गया है। मैंने सब लज्जा ऐसो धो बहाई कि पाए गए भीतर बाहर वाले सबके सामने कुछ बक उठती हूँ। भला यह एक दिन के लिए आई बिचारी जोगिन क्या कहेगी? तो भी धीरज ने इस समय बड़ी लाज रखी नहीं तो मैं-राम-राम-नहीं नहीं, मैंने धीरे से कहा था किसी ने सुना न होगा। अहा! संगीत और साहित्य में भी कैसा गुन होता है कि मनुष्य तन्मय हो जाता है। उस पर जले पर नोन। हाय नाथ! हम अपने उन अनुभवसिद्ध अनुरागों और बढ़े हुए मनोरथों को किस को सुनावें जो काव्य के एक-एक तुक और संगीत की एक-एक तान से लाख-लाखगुन बढ़ते हैं और तुम्हारे मधुर रूप और चरित्र के ध्यान से अपने आप ऐसे उज्ज्वल सरस और प्रेममय हो जाते हैं, मानो सब