आदि शुद्ध हिन्दी में होते थे। उनका उस समय पंजाब में ऐसा, प्रभाव था कि वे सनातन धर्म के स्तम्भ समझे जाते थे। मृत्यु के समय उन्होने कहा था कि भारत में भाषा के दो लेखक हैं-- एक काशी में और दूसरा पंजाब में; परन्तु आज एक ही रह जायगा।' काशी के लेखक से उनका अभिप्राय भारतेन्दु जी से था। इस प्रकार हिंदी के दो रूप प्रस्ताव की भॉति हिंदी संसार के सन्मुख उपस्थित होकर रह गए थे।
एक ऐसे यात्री की भाँति जो मार्ग न जानने के कारण किसी दो राहे पर पहुँचकर खड़ा हो जाय और यह निश्चित न कर सके कि कौन-सा मार्ग ग्रहण करना उचित है, उसी भाँति हिंदी की प्रगति भी उस समय प्रायः एक दम बन्द-सी हो रही थी। ऐसे ही अवसर पर भारतेन्दु जी ने लेखनी उठाई और भाषा को अत्यंत परिमार्जित तथा मधुर रूप देते हुए उसके साहित्य में समयानुकूल नए विषयो की पुस्तकों का निर्माण कर उसको प्रगतिशील बनाया। यही कारण है कि हिन्दी प्रेमियों ने उन्हें वर्तमान हिन्दी का जन्मदाता तक कहा है। उनकी भाषा में पुरानापन, उर्दूपन आदि नहीं रहने पाया और उसे बहुत ही संयत तथा स्वच्छ रूप मिला। यह भाषा-संस्कार केवल गद्य ही में नहीं हुआ, प्रत्युतू कविता में भी हुआ। नई सभ्यता के संघर्ष से शिक्षित सम्प्रदाय में जो नई विचार-धारा प्रवाहित हुई और जिनकी मानसिक बुभुक्षा हिन्दी की प्राचीन चली आती हुई साहित्य-परम्परा से तृप्त नहीं हो रही थी, उनके उपयुक्त साहित्य की रचना हिन्दी में तब तक नहीं हुई थी। भारतेन्दु जी ने नए-नए विषयों पर रचनाकर इस वैषम्य को मिटाने का प्रयत्न