के आरम्भ की अपेक्षा करती रही। विक्रमी बीसवीं शताब्दी के साथ भारत-नक्षत्र राजा शिवप्रसाद का उदय हुआ। इनके प्रयत्न से सं० १९०२ में "बनारस अखबार" काशी से निकलने लगा, जिसकी भाषा नागरी लिपि में उर्दू होती थी। उस समय के पढ़े लिखे लोगो में उर्दू-फारसी का रिवाज अधिक था, हिन्दी का बहुत कम। संस्कृत के पडितो को तो अखबार से कुछ मतलब ही न था। हाँ, कहीं कहीं दो-चार शब्द हिन्दी के भी शपथ लेने के लिए रख दिए जाते थे। सं० १९१३ में राजा साहब स्कूलो के इंस्पेक्टर हुए और शिक्षा-विभाग में मुसल्मानों का प्राबल्य तथा उनका हिन्दी-विरोध देखकर उन्होने हिन्दी का पक्ष लिया। बाद को शिक्षा विभाग के उर्दू-ज्ञाता सदस्यों के जोर देने पर यह उर्दू-मिश्रित हिन्दुस्तानी की ओर झुक पड़े। इस प्रकार राजा शिवप्रसाद 'आमफहम' हिन्दुस्तानी के हामी हुए। प्रायः इसी समय राजा लक्ष्मणसिंह ने शुद्ध हिन्दी में 'प्रजाहितैषी' पत्र निकाला और स॰ १९१८ में शकुन्तला का अनुवाद किया। उन्होंने शुद्ध संस्कृत-मिश्रित हिन्दी का पक्ष लिया और इस मत का रघुवंश के अनुवाद के प्राक्कथन में समर्थन भी किया। पंजाब प्रांत में बा० नवीनचन्द्र राय ने हिन्दी के प्राचारार्थ बहुत सी पुस्तके बंगला की सहायता से तैयार कीं और लिखवाई; पत्र-पत्रिका भी प्रकाशित कराई और सबकी भाषा शुद्ध हिन्दी रखी। पं० गौरीदत्त ने भी शुद्ध हिन्दी में पुस्तकें लिखीं। स्वामी दयानंद ने भी हिन्दी ही में उपदेश देकर तथा अपने ग्रंथ तैयार कर शुद्ध हिन्दी का प्रचार किया। इसी प्रकार पं० श्रद्धाराम फुल्लौरी के व्याख्यान, कथा, उपदेश
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