एक मीठा फल महानंद के पास अपने दूत के द्वारा भेज दिया। राजा की सभा का कोई भी मनुष्य इसका आशय न समझ सका; किंतु चंद्रगुप्त ने सोचकर कहा कि अँगीठी यह दिखलाने को भेजी है कि मेरा क्रोध अग्नि है और सरसो यह
तेज सों ताके ललाई भई रज मैं मिलि आसु सबै रजताई।
मानो प्रबाल की थाल बनाय के लाल की रास बिसाल लगाई॥१॥
ढाँकि कै पावक दूत के हाथ दै बात कही इहि भाँति बुझाय कै।
भैम भुआल सभा महँ सनमुख राखि कै यों कहियो सिर नाय कै॥
याहि पठायो जरासुत नै अवलोकहु नीके अधीरज लाय कै।
पुन सुखाय के नातिन पाय कै जीहो जै पाय कै कौन उपाय कै॥२॥
दोहा---
सुनत चार तिहि हाथ लै, गयो भैम दरबार।
बासव ऐसे कैक सब, जहँ बैठे सरदार॥३॥
अड़िल्ल---
जाय जरासुत-दूत भैमपति-पद परयौ।
देखि जराऊ जगह हिये सभ्रम भरयौ॥
जगत जरावन-द्रव्यपात्र आगे धरयौ।
सोच जरा ह्वै अभय हाल बरनन करयौ॥४॥
सुनि बिहँसे जदुबीर जीत की चाय सों।
हँसि बोले गोविंद कहहु यह राय सों॥
उचित ससुरपन कीन क्षत्रकुल-न्याय सों।
दही दमाद सहाय सुता की हाय सों॥५॥
सोरठा---
इमि कहि द्रुत गहि चाय, आप आप सिखि मैं दियो।
तुरतहि गयो बुझाय, ज्ञान पाय मन भ्रांत जिमि॥६॥
बिदा कियो नृप दूत, उर मैं सर को अक करि।
निरखि बृहदरथ-पूत, सबन सहित कोप्यो अतिहि॥७॥