पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७९
मुद्राराक्षस

चन्द्रगुप्त इस समय चाणक्य के साथ था। शकटार अपने दु:ख और पापों से संतप्त होकर निविड़ वन में चला गया और


उन सबों को पकड कर दिखला दिया। इसी से उस ब्राह्मण के प्राण बचे। एक दिन योगानद की रानी के एक चित्र में, जो महल में लगा हुआ था, वररुचि ने जॉघ में तिल बना दिया। योगानन्द को गुप्त स्थान में वररुचि के तिल बनाने से उस पर भी संदेह हुश्रा और शकटार को आज्ञा दी कि तुम वररुचि को आज ही रात को मार डालो। शकटार ने उसको अपने घर में छिपा रखा और किसी और को उसके बदले मार कर उसका मारना प्रकट किया। एक बेर राजा का पुत्र हिरण्यगुप्त जंगल में शिकार खेलने गया था, वहाँ रात को सिंह के भय से एक पेड पर चढ़ गया। उस वृक्ष पर एक भालू था, कितु इसने उसको अभय दिया। इन दोनों में यह बात ठहरी कि आधी रात तक कुँवर सोवे भालू पहरा दे, फिर भालू सोवे कुँवर पहरा दें। भालू ने अपना मित्रधर्म निबाहा और सिह के बहकाने पर भी कुँवर की रक्षा की। किंतु अपनी पारी में कुँवर ने सिह के बहकाने से भालू को ढकेलना चाहा, जिस पर उसने जागकर मित्रता के कारण कुँवर को मारा तो नहीं कितु कान में मूत दिया, जिससे कुँअर गूँगा और बहिरा हो गया। राजा को बेटे की इस दुर्दशा पर बडा सोच हुआ और कहा कि वररुचि जीता होता तो इस समय उपाय सोचता। शकटार ने यह अवसर समझकर राजा से कहा कि वररुचि जीता है और लाकर राजा के सामने खडा कर दिया। वररुचि ने कहा--कुँवर ने मित्रद्रोह किया है उसी का यह फल है। यह वृत्त कह कर उसको उपाय से अच्छा किया। राजा ने पूछा---तुमने यह सब वृत्तांत किस तरह जाना? वररुचि ने कहा---योगबल से, जैसे रानी का तिल। ( ठीक यही कहानी राजा भोज, उसकी रानी भानुमती और उसके पुत्र और कालिदास की भी प्रसिद्ध है ) यह सब कह कर और उदास होकर वररुचि जङ्गल मे चला गया। वररुचि से शकटार ने राजा को मारने को कहा था, किंतु वह