पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३९६

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मुद्राराक्षस

और दोष को सब भॉति समझती है, उसके सामने खेलने में मेरा भी चित्त संतुष्ट होता है।

पाछे खेत में, मूरखहू के धान।
सघन होन मैं धान के, चहिय न गुनी किसान॥

तो अब मैं घर से सुघर घरनी को बुलाकर कुछ गाने-बजाने का ढंग जमाऊँ। ( घूमकर ) यही मेरा घर है, चलूँ। ( आगे बढ़कर ) अहा! आज तो मेरे घर में कोई उत्सव जान पड़ता है, क्योकि घरवाले सब अपने-अपने काम में चूर हो रहे है।

पीसत कोऊ सुगंध कोऊ जल भरि कै लावत।
कोऊ बैठि कै रंग रंग की माल बनावत॥
कहुँ तिय-गन हुंकार सहित अति स्रवन सोहावत।
होत मुशल को शब्द सुखद जिय को सुनि भावत॥

जो हो घर से स्त्री को बुलाकर पूछ लेता हूँ ( नेपथ्य की ओर )

री गुनवारी सब उपाय की जाननवारी।
घर की राखनवारी सब कुछ साघनवारी॥


इस मगलाचरण को नाटकशास्त्र में नांदी कहते हैं। किसी का मत है कि नांदी पहले ब्राह्मण पढ़ता है, कोई कहता है सूत्रधार ही और किसी का मत है कि परदे के भीतर से नांदी पढ़ी या गाई जाय।