सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९६
भारतेंदु-नाटकावली

कर ) वाह राक्षस मंत्री वाह! क्यों न हो! वाह मंत्रियों में वृहस्पति के समान वाह! तू धन्य है, क्योंकि---

जब लौं रहै सुख राज को तब लौं सबै सेवा करै।
पुनिराज बिगड़े कौन स्वामी? तनिक नहिं चित में धरै॥
जे बिपतिहू में पालि पूरब प्रीति काज सँवारहीं।
ते धन्य नर तुम सारिखे दुरलभ अहैं संसय नहीं॥

इसी से तो हम लोग इतना यत्न करके तुम्हें मिलाया चाहते हैं कि तुम अनुग्रह करके चंद्रगुप्त के मंत्री बनो, क्योंकि---

मूरख कातर स्वामिभक्त कछु काम न आवै।
पंडित हू बिन भक्ति काज कछु नाहिं बनावै॥
निज स्वारथ की प्रीति करैं ते सब जिमि नारी।
बुद्धि भक्ति दोउ होय तबै सेवक सुखकारी॥

सो मै भी इस विषय में कुछ सोता नहीं हूँ, यथाशक्ति उसी के मिलाने का यत्न करता रहता हूँ। देखो, पर्वतक को चाणक्य ने मारा यह अपवाद न होगा, क्योंकि सब जानते हैं कि चंद्रगुप्त और पर्वतक मेरे मित्र हैं तो मैं पर्वतक को मारकर चंद्रगुप्त का पक्ष निर्बल कर दूँगा ऐसा शंका कोई न करेगा, सब यही कहेंगे कि राक्षस ने विषकन्या-प्रयोग करके चाणक्य के मित्र पर्वतक को मार डाला। पर एकांत में राक्षस ने मलयकेतु के जी में यह