पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४०४

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मुद्राराक्षस

पै मम अनादर को अतिहि यह सोच जिय जिनके रह्यो*॥
ते लखहि ,आसन सों गिरायो नंद सहित समाज कों।
जिमि शिखर तें बनराज क्रोध गिरावई गजराज को॥

सो यद्यपि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर चुका हूँ, तो भी चन्द्रगुप्त के हेतु शस्त्र अब भी धारण करता हूँ। देखो मैने---

नव नंदन कौं मूल सहित खोद्यो छन भर में।
चन्द्रगुप्त मैं श्री राखी नलिनी जिमि सर में॥
क्रोध प्रीति सों एक नासि कै एक बसायो।
शत्रु मित्र को प्रकट सबन फल लै दिखलायो॥

अथवा जब तक राक्षस नहीं पकड़ा जाता तब तक नंदों के मारने ही से क्या और चन्द्रगुप्त को राज्य मिलने से ही क्या? ( कुछ सोचकर ) अहा! राक्षस की नंदवंश में कैसी दृढ़ भक्ति है! जब तक नंदवंश का कोई भी जीता रहेगा तब तक वह कभी शूद्र का मंत्री बनना स्वीकार न करेगा, इससे उसके पकड़ने में हम लोगों को निरुधम रहना अच्छा नहीं। यही समझकर तो नंदवंश का सर्वार्थसिद्धि बिचारा तपोवन में चला गया तो भी हमने मार डाला। देखो, राक्षस मलयकेतु को मिलाकर हमारे बिगाड़ने में यत्न करता ही जाता है। ( आकाश में देख---


  • नंद ने कुरूप होने के कारण चाणक्य को अपने श्राद्ध से निकाल दिया था।