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भारतेंदु-नाटकावली

आपकी आज्ञा हो तो उनके पहिरे आभरणों को पंडित ब्राह्मणों को दूँ।

चाणक्य---( हर्ष से आप ही आप ) वाह चंद्रगुप्त वाह, क्यों न हो; मेरे जी की बात सोचकर संदेशा कहला भेजा है। ( प्रकाश ) शोणोत्तरा! चंद्रगुप्त से कहो कि "वाह! बेटा वाह! क्यों न हो, बहुत अच्छा विचार किया! तुम व्यवहार में बड़े ही चतुर हो, इससे जो सोचा है सो करो, पर पर्वतेश्वर के पहिरे हुए आभरण गुणवान ब्राह्मणों को देने चाहिएँ, इससे ब्राह्मण मैं चुन के भेजूँगा।"

प्रति०---जो आज्ञा महाराज!

[ जाती है

चाणक्य---शारंगरव! विश्वावसु आदि तीनों भाइयों से कहो कि जाकर चंद्रगुप्त से श्राभरण लेकर मुझसे मिलें।

शिष्य---जो आज्ञा।

[ जाता है

चाणक्य---( आप ही आप ) पीछे तो यह लिखें पर पहिले क्या लिखें। ( सोचकर ) अहा! दूतो के मुख से ज्ञात हुआ है कि उस म्लेच्छराज-सेना में से प्रधान पाँच राजा परम भक्ति से राक्षस की सेवा करते हैं।

प्रथम चित्रवर्मा कुलूत को राजा भारी।
मलयदेशपति सिंहनाद दूजो बलधारी॥