पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४१३

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मुद्राराक्षस

तीजो पुसकरनयन अहै कश्मीर देश को।
सिंधुसेन पुनि सिंधु-नृपति अति उग्र भेष को॥

मेघाक्ष पाँचवो प्रबल अति, बहु हय-जुत पारस-नृपति।
अब चित्रगुप्त इन नाम कों मेटहिं हम जब लिखहिं हति*॥

( कुछ सोचकर ) अथवा न लिखूँ, अभी सब बात योंही रहे। ( प्रकाश ) शारंगरव! शारंगरव!!

शिष्य---( आकर ) आज्ञा गुरुजी!

चाणक्य---बेटा! वैदिक लोग कितना भी अच्छा लिखें तो भी उनके अक्षर अच्छे नहीं होते; इससे सिद्धार्थक से कहो ( कान में कहकर ) कि वह शकटदास के पास जाकर यह सब बात यो लिखवा कर और "किसी का लिखा कुछ कोई आप ही बाँचे" यह सरनामे पर नाम बिना लिखवाकर हमारे पास आवे और शकटदास से यह न कहे कि चाणक्य ने लिखवाया है।

शिष्य---जो आज्ञा।

[ जाता है

चाणक्य---( आप ही आप ) अहा! मलयकेतु को तो जीत लिया।


  • अर्थात् अब जब हम इनका नाम लिखते हैं तो निश्चय ये सब

मरेंगे। इससे अब चित्रगुप्त अपने खाते से इनका नाम काट दें, न ये जीते रहेंगे व चित्रगुप्त को लेखा रखना पड़ेगा।

भा० ना०---२०