प्रायः सभी सुकवियों ने अपनाया। पुरानी परिपाटी पर ही कविता करते हुए तथा पुरानी प्रथा को निबाहते हुए भी साहित्य-संसार की नवीन प्रगति के प्रवर्तन तथा उन्नयन में योग देने वाले सुकवियों का आरम्भ भारतेन्दु जी से होता है। उन्होंने प्राचीन परम्परा की कविता करते हुए भी जराजीर्ण सड़े-गले शब्दों का निराकरण किया और बोलचाल में कामं आने वाले शब्दों ही का प्रयोग किया। शब्दों के तोड़ने मरोड़ने तथा भरती के शब्द व्यवहृत करने के वे बराबर विरुद्ध रहे और उन्होंने अपनी कविता में ऐसे दोषो को नहीं आने दिया। श्रृंगार-रस के उनके सवैये तथा कवित्त ऐसे सरस, हृदय ग्राही और आकर्षक होते थे कि वे उनके सामने ही सर्वजन प्रिय हो उठे थे। प्रेम-माधुरी आदि में तथा नाटकों में उनके भक्ति-प्रेम से लबालब सवैये आदि मिलेंगे। उनके संस्थापित कवि-समाज की समस्यापूर्ति में तत्कालीन सभी सुकविगण सहयोग देते थे।
हिन्दी में कहानी कहने का आरम्भ भी कविता ही में हुआ था। कुछ कहानियाँ भारतेन्दु जी के समय तक लिखी जा चुकी थीं। भारतेन्दु जी का ध्यान हिन्दी-साहित्य के इस विभाग की कमी की ओर भी आकृष्ट हुआ था; पर वे इस ओर अधिक समय नहीं दे सके। उन्होंने 'मदालसोपाख्यान' लिखा और 'राजसिंह' का अपूर्ण अनुवाद किया। यद्यपि वे स्वयं इस ओर विशेष कुछ न कर सके; पर उनके प्रोत्साहन से उनके मित्रवर्ग में कई सुलेखकों ने इस कमी की पूर्ति का बीड़ा उठाया।
भारतेन्दु-उदय के साथ-साथ हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रचार प्रचुरता से बढ़ने लगा। सं० १९२४ के भाद्रपद में भारतेन्दु