चाणक्य ने नंद को ( इतना कह कर लाज से चुप रह जाता है।)
चंदन---( आप ही आप )
प्रिया दूर, घन गरजहीं, अहो दुःख अति घोर।
औषधि दूर हिमाद्रि पै, सिर पै सर्प कठोर॥
चाणक्य---चंद्रगुप्त को अब राक्षस मंत्री राज पर से उठा देगा यह आशा छोड़ो, क्योंकि देखो---
नृप नंद जीवत नीतिबल सों मति रही जिनकी भली।
ते "वक्रनासादिक" सचिव नहिं थिर सके करि, नसि चली॥
सो श्री सिमिटि अब आय लिपटी चंद्रगुप्त नरेस सो।
तेहि दूर को करि सकै? चाँदनि छुटत कहुँ राकेस सों? ॥
और भी
"सदा दंति के कुंभ को" इत्यादि फिर से पढता है।
चंदन०---( आप ही आप ) अब तुमको सब कहना फबता है।
( नेपथ्य में ) हटो हटो-
चाणक्य---शारंगरव! यह क्या कोलाहल है देखो तो?
शिष्य---जो आज्ञा ( बाहर जाकर फिर आकर ) महाराज, राजा चंद्रगुप्त की आज्ञा से राजद्वेषी जीवसिद्धि क्षपणक निरादरपूर्वक नगर से निकाला जाता है।
चाणक्य---क्षपणक! हा! हा! अथवा राजविरोध का फल भोगै। सुनो चंदनदास! देखो, राजा अपने द्वषियों को