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मुद्राराक्षस

कैसा कड़ा दंड देता है। मैं तुम्हारे भले की कहता हूँ, सुनो, और राक्षस का कुटुंब देकर जन्म भर राजा की कृपा से सुख भोगो।

चंदन---महाराज! मेरे घर राक्षस मंत्री का कुटुंब नहीं है।

( नेपथ्य में कलकल होता है )

चाणक्य---शारंगरव! देख तो यह क्या कलकल होता है?

शिष्य---जो आज्ञा। ( बाहर जाकर फिर आता है ) महाराज! राजा की आज्ञा से राजद्वेषी शकटदास कायस्थ को सूली देने ले जाते है।

चाणक्य---राजविरोध का फल भोगे। देखो, सेठजी! राजा अपने विरोधियों को कैसा कड़ा दंड देता है, इससे राक्षस का कुटुंब छिपाना वह कभी न सहेगा; इसी से उसका कुटुंब देकर तुमको अपना प्राण और कुटुंब बचाना हो तो बचाओ।

चंदन०---महाराज! क्या आप मुझे डर दिखाते हैं! मेरे यहाँ अमात्य राक्षस का कुटुंब हई नहीं है, पर जो होता तो भी मैं न देता।

चाणक्य---क्या चंदनदास! तुमने यही निश्चय किया है?

चंदन०–--हाँ! मैंने यही दृढ़ निश्चय किया है।

चाणक्य---( आप ही आप ) वाह चंदनदास! वाह! क्यों न हो!