पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२७
मुद्राराक्षस

राक्षस---अहा मित्र! देखो, कैसा आश्चर्य हुआ---

जो विषमयी नृप-चंद्र-वध-हित नारि राखी लाय कै।
तासो हत्यो पर्वत उलटि चाणक्य बुद्धि उपाय कै॥
जिमि करन-शक्ति अमोघ अर्जुन-हेतु धरी छिपाय कै।
पै कृष्ण के मत सो घटोत्कच पै परी घहराय कै॥

विराध०---महाराज! समय की सब उलटी गति है---क्या कीजिएगा?

राक्षस---हाँ! तब क्या हुआ?

विराध०---तब पिता का वध सुनकर कुमार मलयकेतु नगर से निकलकर चले गए और पर्वतेश्वर के भाई वैरोधक पर उन लोगो ने अपना विश्वास जमा लिया। तब उस दुष्ट चाणक्य ने चंद्रगुप्त का प्रवेश-मुहूर्त्त प्रसिद्ध करके नगर के सब बढई और लोहारो को बुलाकर एकत्र किया और उनसे कहा कि महाराज के नंद-भवन में गृहप्रवेश का मुहूर्त ज्योतिषियो ने आज ही आधी रात का दिया है, इससे बाहर से भीतर तक सब द्वारो को जॉच लो। तब उससे बढई-लोहारो ने कहा कि 'महाराज! चंद्रगुप्त का गृह-प्रवेश जानकर दारुवर्म ने प्रथम द्वार तो पहले ही सोने की तोरनों से शोभित कर रखा है, भीतर के द्वारों को हम लोग ठीक करते हैं।' यह सुनकर चाणक्य ने कहा कि बिना कहे ही दारुवर्म ने बड़ा काम किया