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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४३४

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भारतेंदु-नाटकावली

कहौ जोधनै मृत्यु को जीति धावै।
चलै संग भै छाँड़ि के कीर्ति पावै॥

विराध०---महाराज! इतनी शीघ्रता न कीजिए, मेरी बात सुन लीजिए।

राक्षस---कौन बात सुनूँ? अब मैंने जान लिया कि इसी का समय आ गया है। ( शस्त्र छोड़कर आँखों में आँसू भरकर ) हा! देव नंद! राक्षस को तुम्हारी कृपा कैसे भूलेगी?

हैं जहँ झुंड खड़े गज मेघ के अज्ञा करौ तहाँ राक्षस! जायकै।
त्यों ये तुरंग अनेकन हैं, तिनहूँ के प्रबंधहि राखौ बनायकै॥
पैदल ये सब तेरे भरोसे हैं, काज करौ तिनको चित लायकै।
यों कहि एक हमैं तुम मानत हे, निज काज हजार बनायकै॥

हॉ फिर?

विराध०---तब चारो ओर से कुसुमनगर घेर लिया और नगरवासी बिचारे भीतर ही भीतर घिरे-घिरे घबड़ा गए। उनकी उदासी देखकर सुरंग के मार्ग से सर्वार्थसिद्धि तपोवन में चला गया और स्वामी के विरह से आपके सब लोग शिथिल हो गए। तब अपने जय की डौंड़ी सब नगर में शत्रु लोगों ने फिरवा दी, और आपके, भेजे हुए लोग सुरंग में इधर-उधर छिप गए, और जिस विषकन्या को आपने चंद्रगुप्त के नाश-हेतु भेजा था उससे तपस्वी पर्वतेश्वर मारा गया।