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भारतेंदु-नाटकावली

शकट०---जो आज्ञा। ( मोहर पर राक्षस का नाम देखकर धीरे से ) मित्र! यह तो तुम्हारे नाम की मोहर है।

राक्षस---( देखकर बड़े सोच से आप ही आप ) हाय-हाय इसको तो जब मैं नगर से निकला था तो ब्राह्मणी ने मेरे स्मरणार्थ ले लिया था, यह इसके हाथ कैसे लगी? ( प्रकाश ) सिद्धार्थक! तुमने यह कैसे पाई?

सिद्धा०---महाराज! कुसुमपुर में जो चंदनदास जौहरी हैं उनके द्वार पर पड़ी पाई।

राक्षस---तो ठीक है।

सिद्धा०---महाराज! ठीक क्या है?

राक्षस---यही कि ऐसे धनिकों के घर बिना यह वस्तु और कहाँ मिले?

शकट०---मित्र! यह मंत्रीजी के नाम की मोहर है, इससे तुम इसको मंत्री को दे दो, तो इसके बदले तुम्हें बहुत पुरस्कार मिलेगा।

सिद्धा०---महाराज! मेरे ऐसे भाग्य कहाँ कि आप इसे लें।

( मोहर देता है )

राक्षस---मित्र शकटदास! इसी मुद्रा से सब काम किया करो।

शकट०---जो आज्ञा।

सिद्धा०---महाराज! मैं कुछ बिनती करूँ?

राक्षस---हाँ हाँ! अवश्य करो।