पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४४४

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मुद्राराक्षस

मिल लो, क्योंकि तुम दुष्ट चाणक्य के हाथ से बच के आए हो।

शकट०---( मिलता है )

राक्षस---( मिलकर ) यहाँ बैठो।

शकट०---जो आज्ञा। ( बैठता है )

राक्षस---मित्र शकटदास! कहो तो यह आनंद की बात कैसे हुई?

शकट०---( सिद्धार्थक को दिखाकर ) इस प्यारे सिद्धार्थक ने सूली देनेवाले लोगों को हटाकर मुझको बचाया।

राक्षस---( आनंद से ) वाह सिद्धार्थक! तुमने काम तो अमूल्य किया है, पर भला! तब भी यह जो कुछ है सो लो।

( अपने अंग से आभरण उतारकर देता है )

सिद्धा०---( लेकर आप ही आप ) चाणक्य के कहने से मैं सब करूँगा। ( पैर पर गिरके प्रकाश ) महाराज! यहाँ मैं पहिले-पहल आया हूँ, इससे मुझे यहाँ कोई नहीं जानता कि मैं उसके पास इन भूषणो को छोड़ जाऊँ। इससे आप इसी अँगूठी से इस पर मोहर करके अपने ही पास रखें, मुझे जब काम होगा ले जाऊँगा।

राक्षस---क्या हुआ? अच्छा शकटदास! जो यह कहता है वह करो।

भा० ना०--२२