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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४५१

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भारतेंदु-नाटकावली

कमल कुमोदिनि सरन में फूले सोभा देत।
भौर वृंद जापै लखौ गँजि गँजि रस लेत॥
बसन चॉदनी, चंद मुख, उडुगन मोती माल।
कास फूल मधु हास, यह सरद किधौं नव बाल॥

( चारों ओर देखकर ) कंचुको! यह क्या? नगर में "चंद्रिकोत्सव" कहीं नहीं मालूम पड़ता; क्या तूने सब लोगों से ताकीद करके नहीं कहा था कि उत्सव हो?

कंचुकी---महाराज! सबसे ताकीद कर दी थी।

राजा---तो फिर क्यों नहीं हुआ? क्या लोगों ने हमारी आज्ञा नहीं मानी?

कंचुकी---( कान पर हाथ रखकर ) राम राम! भला नगर क्या, इस पृथ्वी में ऐसा कौन है जो अपकी आज्ञा न माने?

राजा---तो फिर चंद्रिकोत्सव क्यों नहीं हुआ? देख न---

गज रथ बाजि सजे नहीं, बँधी न बंदनवार।
तने बितान न कहुँ नगर, रंजित कहूँ न द्वार॥
नर नारी डोलत न कहुँ फूल माल गल डार।
नृत्य बाद धुनि गीत नहिं सुनियत श्रवन मँझार॥

कंचुकी---महाराज! ठीक है, ऐसा ही है।

राजा---क्यों ऐसा ही है?

कंचुकी---महाराज योंही है।