दूसरा वै०---( कड़खे की चाल में )
अहो, जिनको बिधि सब जीव सों बढ़ि दीनो जग काज।
अरे, दान-सलिल-वारे सदा जे जीतहिं गजराज॥
अहो, मुक्यो न जिनको मान ते नृपवर जग सिरताज।
अरे, सहहिं न आज्ञा-भंग जिमि इंतपात मृगराज॥
अरे, केवल बहु गहिना पहिरि राजा होइ न कोय।
अहो, जाकी नहिं आज्ञा टरै सो नृप तुम सम होय॥
चाणक्य---( सुनकर आप ही आप ) भला पहिले ने तो देवता रूप शरद के वर्णन में आशीर्वाद दिया, पर इस दूसरे ने क्या कहा? ( कुछ सोच कर ) अरे जाना, यह सब राक्षस की करतूत है। अरे दुष्ट राक्षस! क्या तू नहीं जानता कि अभी चाणक्य सो नहीं गया है?
चंद्र०---अजी वैहीनर! इन दोनो गानेवालों को लाख-लाख मोहर दिलवा दो।
वैहीनर---जो आज्ञा महाराज। ( उठकर जाना चाहता है )
चाणक्य---वैहीनर, ठहर अभी मत जा। वृषल, कुपात्र को इतना क्यों देते हो?
चन्द्र०---आप मुझे सब बातों में योंही रोक दिया करते हैं, तब यह मेरा राज क्या है वरन उलटा बंधन है।
चाणक्य---वृषल! जो राजा आप असमर्थ होते हैं उनमें