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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४६०

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मुद्राराक्षस

इतना ही तो दोष है, इससे जो ऐसी इच्छा हो तो तुम अपने राज का प्रबंध आप कर लो।

चंद्र०---बहुत अच्छा, आज से मैंने सब काम सम्हाला।

चाणक्य---इससे अन्छी और क्या बात है, तो मैं भी अपने अधिकार पर सावधान हूँ।

चंद्र०---जब यही है तो पहिले मैं पूछता हूँ कि कौमुदी-महोत्सव का निषेध क्यों किया गया?

चाणक्य---मैं भी यही पूछता हूँ कि उसके होने का प्रयोजन क्या था?

चंद्र०---पहिले तो मेरी आज्ञा का पालन।

चाणक्य---मैंने भी आपकी आज्ञा के अपालन के हेतु ही कौमुदी-महोत्सव का प्रतिषेध किया, क्योकि---

आइ चारहू सिंधु के छोरहु के भूपाल।
जो शासन सिर मैं धरै जिमि फूलन की माल॥
तेहि हम जौ कछु टारहीं सोउ तुव हित उपदेस।
जासो तुमरो विनये गुन जग मैं बढे नरेस॥

चंद्र०---और जो दूसरा प्रयोजन है वह भी सुनूँ।

चाणक्य---वह भी कहता हूँ।

चंद्र०---कहिए।

चाणक्य---शोणोत्तरे! अचलदत्त कायस्थ से कहो कि तुम्हारे पास जो भद्रभट इत्यादिकों का लेखपत्र है यह माँगा है।

भा० ना०---२३