पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४६८

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मुद्राराक्षस

चाणक्य---दैव तो मूर्ख लोग मानते हैं।

चंद्र०---और विद्वान् लोग भी यद्वा तद्वा करते हैं।

चाणक्य---( क्रोध नाट्य करके ) अरे वृषल! क्या नौकरों की तरह मुझ पर आज्ञा चलाता है?

खुली सिखाहूँ बाँधिबे चंचल भे पुनि हाथ।
( क्रोध से पैर पृथ्वी पर पटक कर )
घोर प्रतिज्ञा पुनि चरन करन चहत कर साथ॥
नंद नसे सो निरुज है तू फूल्यो गरबाय।
सो अभिमान मिटाइहौं तुरतहि तोहिं गिराय॥

चंद्र०---( घबड़ाकर ) अरे! क्या आर्य को सचमुच क्रोध आ गया!

फर फर फरकत अधर पुट, भए नयन जुग लाल।
चढी जाति भी हैं कुटिल, स्वॉस तजत जिमि ब्याल॥
मनहुँ अचानक रुद्रदूग खुल्यौ त्रितिय दिखरात।
( आवेग सहित )
धरनी धारयौ बिनु धँसे हा हा किमि पदघात॥

चाणक्य---( नकली क्रोध रोककर ) तो वृषल! इस कोरी बक- वाद से क्या लाभ है! जो राक्षस चतुर है तो यह शस्त्र उसी को दे। ( शस्त्र फेंककर और उठकर---आप ही आप ) ह ह ह! राक्षस! यही तुमने चाणक्य को जीतने का उपाय किया।