चंद्र०---जो आप न जानते हों तो सुनिए कि वह महात्मा---
जदपि आपु जीती पुरी तदपि धारि कुशलात।
जब लौं जिय चाह्यौ रह्यौ धारि सीस पै लात॥
डौंड़ी फेरन के समय निज बल जय प्रगटाय।
मेरे दल के लोग कों दीनों तुरत हराय॥
मोहे परिजन रीति सो जाके सब बिनु त्रास।
जो मो पै निज लोकहू आनहिँ नहिँ विश्वास॥
चाणक्य---( हॅसकर ) वृषल! राक्षस ने यह सब किया?
चंद्र०---हाँ! हाँ! अमात्य राक्षस ने यह सब किया।
चाणक्य---तो हमने जाना, जिस तरह नंद का नाश करके तुम राजा हुए वैसे ही अब मलयकेतु राजा होगा।
चंद्र०---आर्य! यह उपालंभ आपको नहीं शोभा देता; करने- वाला सब दूसरा है।
चाणक्य---रे कृतघ्न!
अतिहि क्रोध करि खोलिक सिखा प्रतिज्ञा कीन।
सो सब देखत भुव करी नव नृप नंद विहीन॥
घिरी स्वान अरु गीध सों भय उपजावनिहारि।
जारि नंदहू नहिं भई सांत मसान दवारि॥
चंद्र०-यह सब किसी दूसरे ने किया।
चाणक्य---किसने?
चंद्र०---नंदकुल के द्वेषी दैव ने।