पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४७२

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मुद्राराक्षस

राक्षस---( आप ही आप )

कारज उलटो होत है कुटिल नीति के जोर।
का कीजै सोचत यही जागि होयहै भोर॥

और भी

आरंभ पहिले सोचि रचना वेश की करि लावहीं।
इक बात में गर्भित बहुत फल गूढ भेद दिखावहीं॥
कारन अकारन सोचि फैली क्रियन कों सकुचावहीं।
जे करहिं नाटक बहुत दुख हम सरिस तेऊ पावहीं॥

और भी वह दुष्ट ब्राह्मण चाणक्य---

दौवा०---( प्रवेश कर ) जय जय।

राक्षस--किसी भॉति मिलाया या पकड़ा जा सकता है!

दोवा०---अमात्य---

राक्षस---( बाएँ नेत्र के फड़कने का अपशकुन देखकर आप ही आप ) 'ब्राह्मण चाणक्य जय जय' और 'पकड़ा जा सकता है अमात्य' यह उलटी बात हुई और उसी समय असगुन भी हुआ। तो भी क्या हुआ, उद्यम नहीं छोड़ेंगे। ( प्रकाश ) भद्र! क्या कहता है?

दौवा०---अमात्य! पटने से करभक आया है सो आपसे मिला चाहता है।

राक्षस---अभी लाओ।