दौवा०---जो आज्ञा। ( करभक के पास जाकर, उसको संग ले आकर ) भद्र! मंत्रीजी वह बैठे है, उधर जाओ।
[ जाता है
कर०---( मंत्री को देखकर ) जय हो, जय हो।
राक्षस---अजी करभक! आओ-आओ अच्छे हो?–--बैठो।
कर०---जो आज्ञा। ( पृथ्वी पर बैठ जाता है )
राक्षस---( आप ही आप ) अरे! मैंने इसको किस काम का भेद लेने को भेजा था यह भूला जाता है। ( चिंता करता है )
( बेंत हाथ में लेकर एक पुरुष आता है )
पुरुष---हटे रहना, बचे रहना---अजी दूर रहो---दूर रहो, क्या नहीं देखते?
नृप द्विजादि जिन नरन को मंगल रूप प्रकास।
ते न नीच मुखहू लखहिं, कैसा पास निवास॥*
( आकाश की ओर देखकर ) अजी क्या कहा, कि क्यों हटाते हो? अमात्य राक्षस के सिर में पीड़ा सुनकर कुमार मलयकेतु उनको देखने को इधर ही आते हैं।
[ जाता है
( भागुरायण और कंचुकी के साथ मलयकेतु आता है )
मलयकेतु---( लंबी सॉस लेकर---आप ही आप ) हा! देखो
- प्राचीन काल में आचार्य, राजा आदि नीचों को नहीं देखते थे।