पिता को मरे आज दस महीने हुए और व्यर्थ वीरता का अभिमान करके अब तक हम लोगों ने कुछ भी नहीं किया, वरन तर्पण करना भी छोड़ दिया। या क्या हुआ, मैंने तो पहिले यही प्रतिज्ञा की है कि
कर वलय उर ताड़त गिरे, आँचरहु की सुधि नहिं परी।
मिलि करहि आरतनाद हाहा, अलक खुलि रज सों भरी॥
जो शोक सों भइ मातुगन की दशा से उलटायहैं।
करि रिपु जुवतिगन की साई गति पितहिं तृप्त करायहैं॥
और भी---
रन मरि पितु ढिग जात हम बीरन की गति पाय।
कै माता दूग-जल धरत रिपु-जुवती मुख लाय॥
( प्रकाश ) अजी जाजले! सब राजा लोगो से कहो कि "मैं बिना कहे-सुने राक्षस मंत्री के पास अकेला जाकर उनको प्रसन्न करूँगा, इससे वे सब लोग उधर ही ठहरें।"
कंचुकी---जो आज्ञा! ( घूमते-घूमते नेपथ्य की ओर देखकर ) अजी राजा लोग! सुनो, कुमार की आज्ञा है कि मेरे साथ कोई न चले ( देखकर आनंद से ) महाराज कुमार! आप देखिए। आपकी आज्ञा सुनते ही सब राजा रुक गए---
अति चपल जे रथ चलत, ते सुनि चित्र से तुरतहि भए।
जे खुरन खोदत नभ-पथहि, ते बाजिगन झुकि रुकि गए॥