पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४९

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हिचकना पहिले की वैसे ही मृत पुत्र के शव के कफन में से आधा माँग कर उसे अधखुला छोड़ने को तैयार होना दूसरे की पराकाष्ठा है। नायक अपने गौरव तथा आत्माभिमान को कहीं नहीं भूला है। उसे अपने वंश का, सहज क्षत्रियत्व का तथा सत्य प्रतिज्ञ होने का दर्प था। ब्राह्मणों का उसके हृदय में कैसा आदर था, यह उसके आचरण से स्पष्ट है। विश्वामित्र के प्रति तथा पुत्र रोहिताश्व को ऐसे कष्ट के समय ढकेलने वाले बटु के प्रति उनका जो व्यवहार था वह आदर्श है और प्रत्येक पाठक का हृदय उनके प्रति श्रद्धा से भर उठता है। हरिश्चन्द्र ही महाजन थे। इतने प्रसिद्ध इक्ष्वाकु-वंशीय सम्राट् की ऐसी कठोरतम परीक्षा हुई, पर उसमें भी उसकी नम्रता तथा ईश्वर पर उसका विश्वास अंत तक बना रहा। यही कारण है कि आजतक सत्यवीरों की सूची में पहिला नाम इन्हीं महाराज का लिया जाता है। विश्वामित्र के प्रतिनायकत्व में संदेह करना उचित नहीं। इन्द्र-द्वारा प्रेरित होने पर भी नायक की प्रतिद्वंद्विता इन्हीं से चली थी। इन्द्र-प्रेरणा के सिवा इन्हें 'इसपर स्वतः भी क्रोध' था। वशिष्ट ऋषि से इनकी शत्रुता प्रसिद्ध थी। राजा हरिश्चन्द्र उन्हीं वशिष्ट जी के यजमान थे।

सत्यवीर की धर्मपत्नी महारानी शैव्या तथा पुत्र कुमार रोहिताश्व का चरित्र उन्हीं के अनुकूल चित्रित हुआ है। नाटककार ने सहज स्त्री-सुलभ-संकोच, लज्जा, पति के प्रति दृढ़ विश्वास तथा श्रद्धा उसके एक एक बात में भर कर रख दी है। पति ही पत्नी का सर्वस्व है, ऐसा मानते हुए भी वह अपनी शंका तथा अपनी सम्मति कह देना उचित समझती थी।


भा० ना० भू०---४