पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४८

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गया है। इस नाटक के नायक राजा हरिश्चन्द्र और प्रतिनायक विश्वामित्र हैं। पहिले का आदर्श है---

चन्द्र टरै सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार।
पै दृढ़ श्री हरिचंद को, टरै न सत्य विचार॥

और दूसरा उसे इस सत्यवीरत्व से च्युत करने में दत्तचित्त है। उसके प्रयत्न से वह राज्यभ्रष्ट होता है और स्त्री तथा अपने को बेंचकर शारीरिक स्वतंत्रता से भी भ्रष्ट हो जाता है पर अपना सत्यब्रत नहीं त्यागता। ब्राह्मण बने हुए क्षत्रिय में क्रोध की प्रचु-रता है पर उसके विपरीत सच्चे क्षत्रिय में ब्राह्मणो के प्रति जो उदारता थी वह उसे अंत तक सौम्य बनाए रखती है। एक अकारण दूसरे से द्वेष रखता है, उसे अनेक प्रकार से कष्ट देता है पर सच्चे गुण का असर उसके हृदय पर भी दिखलाकर नाटककार उसकी कृति को अस्वाभाविक नहीं होने देता। नायक के प्रति आरंभ ही से दर्शकों की समवेदना आकर्षित करने के लिए इन्द्र की 'देखि न सकहिं पराइ विभूति' वाली नीति दिखलाकर नारद जी से उसकी शासना कराई गई है तथा विश्वामित्र का इंद्र की बात सुनते ही झट उत्तेजित होना भी दिखलाया गया है। ज्यों ज्यो प्रतिनायक की कुटिलता बढ़ती गई त्यों त्यों नायक की सौम्यता तथा दृढ़ता का बढ़ना दिखलाकर यह समवेदना बढ़ाई गई, यहाँ तक कि अंत में इस नाटक का कोई भी पाठक आखें डबडबाए बिना इसे समाप्त नहीं कर सकता। प्रतिनायक के प्रति दर्शकों को घृणा तक हो जाती है। नायक की दान-धीरता तथा सत्य-वीरता दोनों ही एक से एक बढ़कर हैं। जिस प्रकार स्वप्न के दान को भी देने से न