सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०७
मुद्राराक्षस

सिद्धा०---मित्र! तुम अब तक निरे सीधे साधे बने हो। अरे, अमात्य राक्षस भी आर्य चाणक्य की जिन चालों को नहीं समझ सकते उनको हम-तुम क्या समझेंगे!

समि०---वयस्य! अमात्य राक्षस अब कहाँ है?

सिद्धा०---उस प्रलय कोलाहल के बढ़ने के समय मलयकेतु की सेना से निकलकर उंदुर नामक चर के साथ कुसुमपुर ही की ओर वह आते हैं, यह आर्य चाणक्य को समाचार मिला है।

समि०---मित्र! नंदराज्य के फिर स्थापन की प्रतिज्ञा करके स्वनाम-तुल्य-पराक्रम अमात्य राक्षस, उस काम को पूरा किए बिना फिर कैसे कुसुमपुर आते हैं?

सिद्धा०---हम सोचते है कि चंदनदास के स्नेह से।

समि०---ठीक है, चंदनदास के स्नेह ही से। किंतु तुम सोचते हो कि चंदनदास के प्राण बचेंगे?

सिद्धा०---कहाँ उस दीन के प्राण बचेंगे? हमीं दोनो को वध- स्थान में ले जाकर उसको मारना पड़ेगा।

समि०---( क्रोध से ) क्या आर्य चाणक्य के पास कोई घातक नहीं है कि ऐसा नीच काम हम लोग करें?

सिद्धा०---मित्र! ऐसा कौन है जिसको इस जीवलोक में रहना हो और वह आर्य चाणक्य की आज्ञा न माने? चलो, हम