पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५१५

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मुद्राराक्षस

होइ बिफल उद्योग मैं, तजि के कारज-भार।
आप्त मित्रहू थकि रहे, सिर बिनु जिमि अहि छार॥
तजि कै निज पति भुवन-पति सुकुल-जात नृप नंद।
श्री वृषली गइ वृषल ढिग सील त्यागि करि छंद॥
जाइ तहाँ थिर है रही निज गुन सहज बिसारि।
बस न चलत जब बाम बिधि सब कछु देत बिगारि॥
नंद मरे सैलेश्वरहि देन चह्यौ हम राज।
सोऊ बिनसे तब कियो ता सुत हित सो साज॥
बिगयौ तौन प्रबंध हू, मिट्यौ मनोरथ-मूल।
दोस कहा चाणक्य को देवहि भो प्रतिकूल॥

वाह रे म्लेच्छ मलयकेतु की मूर्खता! जिसने इतना नहीं समझा कि---

मरे स्वामिह नहिं तज्यौ जिन निज-नृप-अनुराग।
लोभ छाँड़ि दै प्रान जिन करी सत्रु सों लाग॥
सोई राक्षस शत्रु सो मिलिहै यह अंधेर।
इतनो सूझ्यौ वाहि नहिं दई दैव मति फेर॥

सो अब भी शत्रु के हाथ में पड़के राक्षस नाश हो जायगा, पर चंद्रगुप्त से संधि न करेगा। लोग झूठा कहे, यह अपयश हो, पर शत्रु की बात कौन सहेगा? ( चारो ओर देखकर ) हा! इसी प्रांत में देव नंद रथ पर चढकर फिरने आते थे।