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भारतेंदु-नाटकावली

पुरुष---राम-राम! महाजन लोगों की यह चाल नहीं, विशेष करके साधु जिष्णुदास की।

राक्षस---

तौ कहुँ मित्रहि को दुख वाहू के
नास को हेतु तुम्हारे समान है?

पुरुष---हॉ, आर्य।

राक्षस---( घबड़ाकर आप ही आप ) अरे, इसके मित्र का प्रिय मित्र तो चंदनदास ही है और यह कहता है कि सुहृदविनाश ही उसके विनाश का हेतु है इससे मित्र के स्नेह से मेरा चित्त बहुत ही घबड़ाता है। ( प्रकाश ) भद्र! तुम्हारे मित्र का चरित्र हम सविस्तर सुना चाहते हैं।

पुरुष---आर्य! अब मैं किसी प्रकार से मरने में विलंब नहीं कर सकता।

राक्षस---यह वृत्तांत तो अवश्य सुनने के योग्य है, इससे कहो।

पुरुष---क्या करें? आप ऐसा हठ करते हैं तो सुनिए।

राक्षस---हाँ! जी लगाकर सुनते हैं, कहो।

पुरुष---आपने सुना ही होगा कि इस नगर में प्रसिद्ध जौहरी सेठ चंदनदास हैं।

राक्षस---( दुःख से आप ही आप ) दैव ने हमारे विनाश का द्वार अब खोल दिया। हृदय! स्थिर हो, अभी न जाने क्या-क्या कष्ट तुमको सुनना होगा। ( प्रकाश ) भद्र! हमने भी सुना है कि वह साधु अत्यंत मित्रवत्सल है।