सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ४४ )

जो अंश अच्छे पाए उन्हें अपने नाटक में यथास्थान बैठा दिए।

सत्यहरिश्चंद्र बालकों के लिए लिखा गया है और इसी से इसमें श्रृंगार रस आने नहीं पाया है। प्रस्तावना दोनों ही की भिन्न हैं। चंडकौशिक का प्रथम अंक श्रृंगार रस पूर्ण है पर सत्यहरिश्चंद्र में उसके बदले इंद्र तथा नारद के सम्भाषण में अच्छा उपदेश दिलाया गया है। चंडकौशिक के दूसरे अंक का आरंभ राजा हरिश्चंद्र के शिकार खेलने की सूचना से होता है। इसके अनंतर विघ्नराट् आकर विश्वामित्र के द्वारा तप के बल से तीनो महाविद्याओ के वशीभूत करने के प्रयत्न की सूचना देता है। इसके बाद राजा भी रथस्थ आते है। इसी समय महाविद्याएँ भी चिल्लाती सुनाई पड़ती हैं। बालकगण प्रायः आरंभ में पाठशाला जाते चिल्लाते हैं पर महाविद्याएँ भी किसी के अभ्यास करने पर उसके पास आने से चिल्लाएँ यह कुछ असंगत सा जान पड़ता है। राजा सहायता को तैयार होते हैं तब नेपथ्य से विश्वामित्र तथा तीनो महाविद्याएँ आती हैं। विश्वामित्र के क्रोध प्रकट करते ही तीनों महाविद्याएँ चली जाती हैं और इन दोनों का संघर्षण होता है। राजोचित कार्य करने के लिए हरिश्चंद्र क्षमा माँगते हैं इसपर वाग्जाल फैलाकर सारा राज्य तथा एक लक्ष सुवर्णमुद्रा मॉग ली जाती है। अंत में काशी जाने की प्राज्ञा लेकर राजा लौटते हैं।

बालको के आगे उचित कार्य करने पर इस प्रकार के पुरस्कार पाने का आदर्श रखना उचित न समझकर ही उन्होंने परिवर्तन कर डाला। उन्होंने पति तथा पुत्र के लिए अशुभ स्वप्न