पुरुष---जो आज्ञा।
चाणक्य---अजी अभी ठहरो, सुनो! दुर्गपाल विजयपाल से यह कह दो कि अमात्य राक्षस के शस्त्र ग्रहण से प्रसन्न होकर महाराज चंद्रगुप्त यह आज्ञा करते हैं कि "चंदनदास को सब नगरों का जगत्सेठ कर दो।"
पुरुष---जो आज्ञा।
[जाता है
चाणक्य---चंद्रगुप्त! अब और मैं क्या तुम्हारा प्रिय करूँ?
राजा---इससे बढ़कर और क्या भला होगा?
मैत्री राक्षस सो भई, मिल्यो अकंटक राज।
नंद नसे सब अब कहा यासों बढ़ि सुख-साज॥
चाणक्य---( प्रतिहारी से) विजये! दुर्गपाल विजयपाल से कहो कि "अमात्य राक्षस के मेल से प्रसन्न होकर महाराज चंद्रगुप्त आज्ञा करते हैं कि हाथी, घोड़ों को छोड़कर और सब बँधुओ का बंधन छोड़ दो" वा जब अमात्य राक्षस मंत्री हुए तब अब हाथी-घोड़ों का क्या सोच है? इससे---
सब गज तुरग अब कछु मत राखौ बाँधि।
केवल हम बॉधत सिखा निज परतिज्ञा साधि॥
( शिखा बांधता है )
प्रतिहारी---जो आज्ञा।
[ जाती है