पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४३३
मुद्राराक्षस

जिन मित्रता राखी है लायक सों तिनको तिनकाहू महा सर है।
जिनकी परतिज्ञा टरै न कबौं तिनकी जय ही सब ही थर है॥

( पहले अंक की समाप्ति और दूसरे अंक के आरंभ में )

जग मैं घर की फूट बुरी।
घर के फूटहि सो बिनसाई सुबरन लंकपुरी॥
फूटहि सों सब कौरव नासे भारत जुद्ध भयो।
जाको घाटो या भारत मैं अबलौं नहिं पुजयो॥
फूटहि सो जयचंद बुलायो जवनन भारत धाम।
जाको फल अबलौं भोगत सब आरज होइ गुलाम॥
फूटहि सों नव नंद बिनासे गयो मगध को राज।
चंद्रगुप्त को नासन चाह्यौ आपु नसे सह साज॥
जो जग मैं धन मान और बल अपुनो राखन होय।
तो अपने घर मैं भूलेहू फूट करौ मति कोय॥

( दूसरे अंक की समाप्ति और तीसरे अक के आरंभ में )

जग मैं तेई चतुर कहावै।
जे सब बिधि अपने कारज को नीकी भाँति बनावै॥
पढ्यौ लिख्यौ किन होइ जु पै नहिं कारज साधन जानै।
ताही को मूरख या जग मैं सब कोऊ अनुमानै॥
छल मैं पातक होत जदपि यह शास्त्रन मैं बहु गायो।
पै अरि सों छल किए दोष नहि मुनियन यहै बतायो॥


भा० ना०---२८