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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५३९

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भारतेंदु-नाटकावली

( तीसरे अंक की समाप्ति और चौथे अंक के आरंभ में )

ठुमरी

तिनको न कछू कबहूँ बिगरै, गुरु लोगन को कहनो जे करैं।
जिनको गुरु पंथ दिखावत हैं ते कुपंथ पै भूलि न पाँव धरैं॥
जिनकों गुरु रच्छत आप रहैं ते बिगारे न बैरिन के बिगरैं।
गुरु को उपदेस सुनौ सब ही, जग कारज जासों सबै सँभरै॥

( चौथे अंक की समाप्ति और पाँचवें अंक के आरभ में )

पूरबी

करि मूरख मित्र मिताई, फिर पछितैहौ रे भाई।
अंत दगा खैहौ सिर धुनिहौ रहिहौ सबै गँवाई॥
मूरख जो कछु हितहु करै तो तामैं अंत बुराई।
उलटो उलटो काज करत सब दैहै अंत नसाई॥
लाख करौ हित मूरख सों पैताहि न कछु समुझाई।
अंत बुराई सिर पै पेहै रहि जैहो मुँह बाई॥

फिर पछितैहो रे भाई॥

( पाँचवे अक की समाप्ति और छठे अक के आरंभ में )

[ काफी ताल होली का ]

छलियन सों रहो सावधान नहिं तो पछताओगे।
इनकी बातन मैं फँसि रहिहौ सबहि गँवाओगे॥
स्वारथ लोभी जन सो आखिर दगा उठाओगे।
तब सुख पैहौ जब सॉचन सों नेह बढ़ायोगे॥

छलियन सो०॥