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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५४

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चंडकौशिक का चौथा और पाँचवॉ अंक मिलाकर सत्य-हरिश्चंद्र का चौथा अंक निर्मित हुआ है। चंडकौशिक में राजा हरिश्चंद्र एक डोम के साथ आते हैं। अपनी पूर्व बीती कहते और स्मशान का वर्णन करते हैं। कापालिक आता है और विघ्नों को हटाने की प्रार्थना करता है। विघ्न हटते ही विद्याएँ आती हैं और कौशिक के पास भेजी जाती हैं। तब कापालिक अपनी साधना पूर्ण करके आता है और महानिधान देने का प्रयत्न कर चला जाता है। राजा 'भागीरथी-तीरमुपगम्य' स्वामी कार्य में लगते हैं। यहाँ चौथा अंक समाप्त होता है। पाँचवें अंक में उसी प्रकार उसी स्थान पर राजा पुनः आता है। वह सोच विचार कर रहा है कि शैव्या आती है। एक दूसरे डोम के कहने से उससे कफन मॉगने जाते हैं। जानकर दोनों ही मरने को तैयार होते है, फिर रुकते हैं। अंत में धर्म आकर शांति फैलाते हैं। सत्यहरिश्चंद्र में करुण रस की मात्रा अधिक है, पिशाचादि की कथा बढ़ाई गई है और दोनों अंक मिला दिए गए हैं। कारुण्य के आधिक्य से इसमें भगवान स्वयं पधारे हैं। इंद्र, विश्वामित्र आदि को लाकर आपस में मिला देना और दोनो पक्ष के हृदयों के मालिन्य को मिटा देना बालकों के लिए बहुत उपदेशमय हो गया है। दोनो वर्णन में बहुत कुछ परिवर्तन होते हुए भी प्रथम का बहुत अंश इसमें आ गया है।

घ---शंका-समाधान

सत्यहरिश्चन्द्र नाटक की तीन समालोचनाएँ हमारे देखने में आई हैं। प्रथम हिन्दी वैयाकरणी पं० कामताप्रसाद गुरु की