पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ४७ )

है, जिसमें व्याकरण-विषयक अशुद्धियाँ विशेषतः दिखलाई गई है। गुणावलोकन करते हुए कुछ दोष भी दिखलाए गए है। इसके अनन्तर भारतेन्दु-नाटकावली की भूमिका में रायबहादुर बा० श्यामसुन्दर दास जी बी० ए० और लाला भगवानदीनजी ने सत्यहरिश्चंद्र में अपनी अपनी स्वतंत्र आलोचनाएँ की हैं। प्रथम में दोष मात्र दिखलाए गए हैं और दूसरे में गुण-दोष दोनो ही की चर्चा की गई है।

पहिली समालोचना का सारांश तो यही है कि भारतेन्दु जी न तो भारतीय और न यूरोपीय नाट्यशास्त्र से पूर्णतया परिचित थे और न इस कारण वे दोनो का सामंजस्य कर एक नई शैली संस्थापित कर सके। उन्होने बंगला तथा पारसी कंपनी के नाटकों का अनुकरण किया। 'सत्यहरिश्चन्द्र का नायक कौन है?' इसका पता नहीं। समालोचक महोदय विश्वामित्र ही को क्रियाशील मानते हुए नायक सा समझते हैं। सत्य है, घातक ही क्रियाशील है, अपने को अन्त तक बिना प्रतिहिंसक हुए उससे बचाने वाला निर्जीव आलसी है। अर्थ-प्रकृति, अवस्थादि का आपके कथनानुसार खोजने पर भी इस नाटक में पता नहीं मिलता और यदि कोई उन्हें ढूँढ़ निकाले तो वह उसी समालोचक की उपज मात्र होगी।' 'यहाँ सत्य विचार ही कौन था? एक स्वप्न की बात थी'। वस्तुतः जो संसार ही को नित्य और सब कुछ समझते हैं उनके लिये ऐसा विचार रखना उचित था पर आपसे संसारिक प्रशंसा मान प्रतिष्ठा को तुच्छातितुच्छ समझने वाले का ऐसा लिखना कुछ खटकता है। गंगावर्णन को दोष मान लिया है और अंकावतार तथा जवनिका के गिरने