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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५४०

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मुद्राराक्षस

(छठे अंक की समाति और सातवें अंक के आरंभ में)

['जिनके मन में सिय राम बसें' इस धुन की]

जग सूरज चंद टरै तो टरै पै न सज्जन-नेहु कबौं बिचले।
धन संपति सर्बस गेह नसौ नहिं प्रेम की मेड़ सो एड़ टलै॥
सतवादिन को तिनका सम प्रान रहै तो रहै वा ढलै तो ढलै।
निज मीत की प्रीत प्रतीत रहौ इक और सबै जग जाउ भलै॥

(अंत में गाने को)

[विहाग—श्लोक के अर्थ के अनुसार]

हरौ हरि-रूप सबै जग-बाधा।
जा सरूप सों धरनि उधारी निज जन कारज साधा॥
जिमि तव दाढ़ अग्र लै राखी महि हति असुर गिरायो।
कनक-दृष्टि म्लेच्छन हूँ तिमि किन अब लौं मारि नसायो॥
आरज राज रूप तुम तासों मॉगत यह बरदाना।
प्रजा कुमुद्गन चंद्र नृपति को करहु सकुल कल्याना॥

[बिहाग ठुमरी]

पूरी अमी की कटोरिया सी चिरजीओ सदा विकटोरिया रानी।
सूरज चंद प्रकास करै जब लौं रहै सात हू सिंधु मैं पानी॥
राज करौ सुख सों तब लौं निज पुत्र औ पौत्र समेत सयानी।
पालौ प्रजागन कों सुख सों जग कीरति-गान करैं गुन गानी॥

[कलिंगड़ा]

लहौ सुख सब बिधि भारतवासी।
विद्या कला जगत की सीखौ तजि आलस की फाँसी॥