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नीलदेवी

से छोड़ते ही बन आई। ले ऐसे मौके और क्या करता? मुसलमानी के पीछे अपनी जान देता?

चपर॰––हाँ जी, किसकी मुसलमानी और किसका कुफ्र। यहाँ अपने माँड़े-हलुए से काम है।

भठि॰––तो मियाँ आज जशन में जाना तो देखो मुझको भूल मत जाना। जो कुछ इनाम मिले उसमें से भी कुछ देना। हाँ! देखो मैंने कई दिन खिदमत की है।

पीक॰––जरूर-जरूर जानछल्ला। यह कौन बात है। तुम्हारे ही वास्ते तो जी पर खेलकर यहाँ उतरे हैं। (चपरगट्टू से कान में) यह सुनिए, जान झोकें हम माल चाभें बी भठियारी। यह नहीं जानतीं कि यहाँ इनकी ऐसी-ऐसी हजारों चराकर छोड़ दी हैं।

चपर॰––(धीरे से) अजी कहने दो, कहने से कुछ दिए ही थोड़े देते हैं। भठियारी हो चाहे रंडी, आज तक तो किसी को कुछ दिया नहीं है, उलटा इन्हीं लोगों का खा गए हैं। (भठियारी से) वाह जान साहब! तुम जब माँगोगी तब देंगे। रुपया-पैसा कौन चीज है, जान तक हाजिर है। जब कहो गरदन काटकर सामने रख दूँ।

(खूब घूरता है)

भा॰ ना॰–३३