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नीलदेवी

पड़ैगा! हाय हाय! (चारों ओर देखकर) हाँ, समाचार तो कहो क्या हुआ।

पागल––कल उन दुष्ट यवनों ने महाराज से कहा कि तुम जो मुसलमान हो जाओ तो हम तुमको अब भी छोड़ दें। इस समय वह दुष्ट अमीर भी वहीं खड़ा था। महाराज ने लोहे के पिंजड़े में से उसके मुँह पर थूक दिया, और क्रोध कर के कहा कि दुष्ट! हमको पिंजड़े में बंद और परवश जानकर ऐसी बात कहता है। छत्री कहीं प्राण के भय से दीनता स्वीकार करते हैं। तुझपर थू और तेरे मत पर थू।

मियाँ––(घबड़ाकर) तब तब।

पागल––इसपर सब यवन बहुत बिगड़े। चारों ओर से पिंजड़े के भीतर शस्त्र फेंकने लगे। महाराज ने कहा इस बंधन में मरना अच्छा नहीं। बड़े बल से लोहे के पिंजड़े का डंडा खींचकर उखाड़ लिया और पिंजड़े से बाहर निकल उसी लोहे के डंडे से सत्ताईस यवनों को मारकर उन दुष्टों के हाथ से प्राण त्याग किए। हाय! (रोता है)

मियाँ––(चारों ओर देखकर) और अब क्या होता है? महाराज का शरीर कहाँ है? तुमने यह सब कैसे जाना?

पागल––सब इन्हीं दुष्टों के मुख से सुना। इसी भेष में घूमते हैं। महाराज का शरीर अभी पिंजड़े में रक्खा है। कल[१] जशन होगा। कल सब शराब पीकर मस्त होंगे। (चारों ओर देखकर) कल ही अवसर है।

मियाँ––तो कुमार सोमदेव और महारानी से हम जाकर यह वृत्त कह देते हैं, तुम इन्हीं लोगों में रहना।

पागल––हाँ, हम तो यहीं हई है। (रोकर) हम अब स्वामी के बिना वहाँ जाकर ही क्या करेंगे!

मियाँ––हाय! अब भारतवर्ष की कौन गति होगी? अब त्रैलोक्य-ललाम सुता भारत-कमलिनी को यह दुष्ट यवन यथासुख दलन करेंगे। अब स्वाधीनता का सूर्य हम लोगों में फिर न प्रकाश करेगा। हाय! परमेश्वर तू कहाँ सो रहा है। हाय! धार्मिक वीर पुरुष की यह गति!

(उदास स्वर से गाता है)
(विहाग)

कहाँ करुनानिधि केसव सोए!
जागत नेक न जदपि बहुत बिधि भारतवासी रोए॥
इक दिन वह हो जब तुम छिन नहिं भारतहित बिसराए।
इतके पशु गज को आरत लखि आतुर प्यादे धाए॥
इक इक दीन हीन नर के हित तुम दुख सुनि अकुलाई।
अपनी संपति जानि इनहि तुम रछ्‌यौ तुरतहि धाई॥
प्रलयकाल सम जौन सुदरसन असुर-प्रानसंहारी।
ताकी धार भई अब कुंठित हमारी बेर मुरारी॥

भा॰ ना॰–३४


  1. यहाँ तक का पाठ, इस पुस्तक की पृष्ठ संख्या ५२८, मूल पाठ से गायब है। इसे भारतेन्दु समग्र का स्रोत देखकर शोधित किया गया है।