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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६४५

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भारतेंदु-नाटकावली

महँत––बच्चा नारायणदास, यह नगर तो दूर से बड़ा सुंदर दिखलाई पड़ता है! देख, कुछ भिच्छा-उच्छा मिले तो ठाकुरजी को भोग लगै। और क्या।

नारायण॰––गुरुजी महाराज, नगर तो नारायण के आसरे से बहुत ही सुंदर है जो है सो, पर भिच्छा सुंदर मिले तो बड़ा आनंद होय।

महंत––बच्चा गोबरधनदास, तू पच्छिम की ओर से जा और नारायणदास पूरब की ओर जायगा। देख, जो कुछ सीधा-सामग्री मिले तो श्रीशालग्रामजी का बालभोग सिद्ध हो।

गोबरधन॰––गुरुजी, मैं बहुत सी भिच्छा लाता हूँ। यहाँ के लोग तो बड़े मालवर दिखलाई पड़ते हैं। आप कुछ चिंता मत कीजिए ।..

महंत––बहुत लोभ मत करना। देखना, हाँ––

लोभ पाप को मूल है, लोभ मिटावत मान।
लोभ कभी नहिं कीजिए, यामैं नरक निदान॥

(गाते हुए सब जाते हैं)