पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६६०

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पाँचवाँ अंक

स्थान––अरण्य

(गोबरधनदास गाते हुए पाते हैं)
(राग काफी)

अंधेर नगरी अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥
नीच ऊँच सब एकहि ऐसे। जैसे भँडुए पंडित तैसे॥
कुल-मरजाद न मान बड़ाई। सबै एक से लोग-लुगाई॥
जात-पॉत पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई॥
बेश्या जोरू एक समाना। बकरी गऊ एक करि जाना॥
साँचे मारे मारे डोलैं। छली दुष्ट सिर चढ़ि चढ़ि बोले॥
प्रगट सभ्य अंतर छलधारी। साई राजसभा बल भारी॥
साँच कहैं ते पनही खावै। झूठे बहु बिधि पदवी पावैं॥
छलियन के एका के आगे। लाख कहै एकहु नहिं लागे॥
भीतर होइ मलिन की कारो। चहिए बाहर रँग चटकारो॥
धर्म अधर्म एक दरसाई। राजा करे सो न्याष सदाई॥
भीतर स्वाहा बाहर सादे। राज करहिं अमले अरु प्यादे॥
अंधाधुंध मच्यौ सब देसा। मानहुँ राजा रहत बिदेसा॥
गो द्विज श्रुति आदर नहिं होई। मानहुँ नृपति विधर्मी कोई॥
ऊँच नीच सब एकहि सारा। मानहुँ ब्रह्म-ज्ञान विस्तारा॥